22.11.12

बादल का एक टुकड़ा

मैं
बादल का
एक टुकड़ा हूँ
और तुम
बरखा की शीतल बूँदें |
मैं
खाली - खाली सा
बादल का एक टुकड़ा
और तुम्हारा प्यार
बादल टुकडे को
भर देने वाली,
उसे उसका स्वरूप देने वाली
जल की असंख्य बूँदें |
मैं
बादल का
एक छोटा सा टुकड़ा
और तुम
मेरा पूरा आसमान,
मैं
सीमाओं से निर्मित
और तुम अनंत आकाश

- सीमा कुमार
१७/६/९९

* यह कविता 'हिन्द-युग्म' पर प्रथम प्रकाशित हुई और वहां पढ़ी जा सकती हैं | 

2.10.12

सफ़र अभी है बाकी


स्वराज से सुराज तक 
विभाजन से मिलाप तक
मेरी मातृभूमि का अभी
लंबा सफर है बाकी।

तंदूर से उत्थान तक 
अशिक्षा से ज्ञान तक
कई अंधेरे कोनों में 
उजाला फैलाना है बाकी।

तय किए साठ बरस 
सफ़र लंबा था मगर 
ऊँचे-नीचे रास्तों पर अभी 
अनन्त का सफर है बाकी। 

मिलती गई कई मंज़िलें 
ऊँचे रहे हम उड़ते 
सोने की चिड़िया की फिर भी
बहुत उड़ान अभी है बाकी। 

- सीमा कुमार
१४ अगस्त , २००७

* यह कविता 'हिन्द-युग्म' पर प्रथम प्रकाशित हुई और वहां पढ़ी जा सकती हैं | 

25.8.12

अंतर्द्वन्द्व

मैं हर दिन
तारों सी झिलमिल ।
आँखें मेरी
सदैव स्वपनिल -
रोज पूछती मुझसे
आज कौन सा
स्वप्न सजाऊँ ?
मिटाना है तुम्हें
कौन सा अंधियारा ?
किस अंतर्द्वन्द्व में
दीप जलाऊँ,
करे जो रौशन
और आशान्वित राहें ।

रोज़ जलाती हूँ खुद को
रोज़ प्रज्वलित
होती है एक आग
इस आशा में -
स्वयं के ही
हवन कुंड में
स्वाहा हो जाऊँ
और उस राख से
पुनर्निमित हो
निकल आऊँ निर्मल मैं ।
फीनिक्स की तरह ।

देह - विकार, कष्ट, क्लेश,
लोभ, क्षोभ और अंतर्द्वन्द्व
नहीं मिटते इस जीवन में ।
कभी - कभी मिट जाता है
आत्मा का एहसास ।
नहीं मिटती क्यों
अपने ही दुर्गुणों की,
दुर्बलताओं की पोथी ?
क्यों पन्ने उसमें हर दिन
जुड़ते ही जाते ?
क्या हर अर्जुन को
मिलते हैं कृष्ण ?
और जो अर्जुन
पांडव - बहन होती
तब भी क्या उसे
मिलते कृष्ण,
मिलती गीता ?


- सीमा कुमार
४ सितंबर २००७

यह कविता 'हिन्द-युग्म' पर प्रथम प्रकाशित हुई और वहां पढ़ी जा सकती हैं | 

26.7.12

हर लम्हा एक विस्मय

ठहरा हुआ पानी
एक छोटा सा कंकड़
या एक हल्का सा स्पर्श
और उठी असंख्य, अनगिनत लहरें;
पानी की सतह पर
खिली असंख्य तरंगें.. ।

लहरें मेरी ओर आती रहीं
और वापस जा कहीं दूर
विलीन होती रहीं ।
तट पर खड़ी मैं
उन अनगिनत लहरों को
एक एक कर
गिनने की कोशिश करती रही ।

मेरे स्याह केश को
उड़ाता हुआ निकल चला
आकाररहित पवन
और जागी एक तीव्र इच्छा
उस शक्लरहित पवन को
आलिंगन में लेने की ।

वक्त रेत की तरह
फिसलता रहा
मेरी भिंची हुई मुठ्ठियों से
और मैं रेत के एक-एक कण को
बिना आहट
फर्श पर तरलता से
बिखरते देखती रही ।

बगिया के
खिले हुए फूलों के बीच
हुआ एहसास
यह कोमल पंखुड़ियाँ
हैं बस कुछ पल के मेहमान ।
उनकी मोहक खुशबू ने कहा
उठा लो आनंद
इससे पहले कि मैं
हो जाऊँ लुप्त ।

यह सभी याद दिलाते रहे
दोहराते रहे मुझसे -
जीयो, प्रेम करो,
हो उत्क्रांत और
करो आत्म-उत्थान,
हो आनंदित
और संजो कर रखो
हर नन्हें पल को
वक्त के हर कतरे को
क्योंकि हर लम्हा
अपने आप में
है एक चमत्कार,
एक विस्मय ।

- सीमा कुमार
२० जुलाई, २००७

यह कविता 'हिन्द-युग्म' पर प्रथम प्रकाशित हुई और वहां पढ़ी जा सकती हैं | 
  
 'हर लम्हा एक विस्मय' लिखा था अंग्रेज़ी में (Each Moment is a Wonder ) और अनुवाद हिन्दी में ।  कविता के पीछे की कहानी यहां है |  

14.5.12

उड़ान



माँ
तुमने मुझे जब
उड़ना सिखाया था
क्या तुम्हें
एहसास था
एक दिन
तुमसे दूर
जा बसूँगी
अपने नए घोंसले में,
नए परिवार के साथ ?

तुम्हें खुशी हुई होगी
कि मेरे पंख अब
मुझे दूर तक
उड़ा ले जा सकते हैं,
अपने रास्ते
खुद तय कर सकूँगी
अकेले भी.. ।
पर संशय तो होगा तुम्हें
कहीं थक न जाऊँ,
गिर न जाऊँ ...
और डर भी होगा -
जल्दी ही
तुमसे दूर चली जाऊँगी ।
जब से मैं आई
तुम्हारी दुनिया
मेरे इर्द-गिर्द ही तो
घूमती रही है ।
दिल थाम तो लेती होगी
कि एक दिन
तुम्हारा यही केंद्र
विस्थापित हो जाएगा,
चला जाएगा
किसी और जीवन का
केंद्र बनने ।

फिर भी, माँ,
तुमने मुझे
पूरी तरह पंख फैलाकर,
स्वच्छंद होकर
उड़ना सिखाया ।
तुमसे दूर जाकर भी
तुम्हारा बसेरा
सदैव याद आता
और अकसर
अपनी यादें तलाशने
मैं लौट आती वहाँ ... ।

अब मेरी बारी है
उड़ान सिखाने की
और अब भी
तुम्हारी ज़रूरत है ...
तुम्हारे अनुभव की,
वात्सल्य की,
पथ-प्रदर्शन की,
ताकि मैं भी
बेहिचक हो,
निर्भय हो,
अपनी नन्हीं चिड़िया को
और भी ऊँचा उड़ना
सिखा सकूँ ।

सीमा कुमार
३ अक्टूबर, २००७


यह कविता 'उड़ान' मेरी माँ को समर्पित है । यह कविता 'हिन्द-युग्म' प्रथम प्रकाशित हुई वहां और पढ़ी जा सकती हैं | कविता के पीछे की कहानी यहां है |
  
एक मित्र, जिसे हिन्दी पूरी तरह समझ नहीं आती, ने इस कविता का मतलब पूछा .. और अर्थ बताते-बताते इसे अंग्रेज़ी में अनुवाद कर दिया जो यहाँ पढ़ सकते है । 

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